26 जनवरी, 1950 को संविधान लागू होते ही हमारे देश की राजभाषा हिंदी हो गई। यह अलग बात थी कि संविधान में संघ के कार्यों के लिए पंद्रह वर्षों तक हिंदी के साथ अंग्रेजी के प्रयोग को जारी रखने की भी व्यवस्था की गई। जिसका मंतव्य यह था कि संघ सरकार का कामकाज हिंदी में धीरे-धीरे बढ़ाया जाएगा और 15 वर्षों की समाप्ति के बाद हिंदी पूर्णत: संघ की राजभाषा हो जाएगी। आज संविधान लागू हुए 59 वर्ष बीत गए परंतु सरकारी कामकाज में राजभाषा हिंदी का प्रयोग अभी भी उतना नहीं हो पा रहा है जितना होना चाहिए था। सरकार ने सरकारी कर्मचारियों की व्यावहारिक कठिनाईयों को ध्यान में रखकर ही राजभाषा विभाग, गृह मंत्रालय के अंतर्गत हिंदी शिक्षण योजना की शुरूआत की थी जिसके अंतर्गत कर्मचारियों के हिंदी शिक्षण की व्यवस्था की गई है ताकि वे हिंदी सीख कर अपना कार्यालयी कार्य सहजता से हिंदी में संपादित कर सके। पूरे देश में हिंदी शिक्षण योजना के कई उप केंद्र भी खोले गए जिसका उद्देश्य कर्मचारियों को बिना किसी परेशानी के हिंदी सीखने में मदद करना है। आज तो भारत सरकार का राजभाषा विभाग ऑन-लाइन हिंदी का शिक्षण उपलब्घ करा रहा है परंतु इन सब के बावजूद सरकारी विभागों की फाइलों से हिंदी अभी भीक्यों नदारद है यह समझ से परे है। ऐसा भी नहीं है कि हिंदी लोगों को आती नहीं है। लगभग पूरे देश में हिंदी सभी को आती है। प्रिंट मीडिया और इलैक्ट्रॉनिक मीडिया के प्रसार से हिंदी जानने वालों की संख्या में आशातीत वृद्धि हुई है। हिंदी जानने वाले देश के हर कोने में मौजूद है। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक सभी को हिंदी आती है। पर ऐसा क्या कारण है कि पूरे देश के सरकारी कार्यालयों में प्रोत्साहन योजनाओं, आवधिक कार्यशालाओं के नियमित आयोजन, हिंदी पखवाड़ा, हिंदी माह मनाने के बावजूद भी संघ का कार्य राजभाषा में क्यों नहीं हो पा रहा है। काफी चिंतन एवं मनन के पश्चात यह विचार बार-बार आता है कि हिंदी को संघ की राजभाषा बनाने में हमारे वरिष्ठ अधिकारियों का अपेक्षित सहयोग नहीं मिल पा रहा है। वे अपने कार्यालयी कार्य की भाषा के रूप में हिंदी को अपनाने में कतरा रहे हैं। ऐसा नहीं है कि इन अधिकारियों को हिंदी नहीं आती है अथवा कम आती है। इन अधिकारियों का हिंदी ज्ञान इनके हिंदी पखवाड़ा, हिंदी कार्यशालाओं, राजभाषा सम्मेलनों तथा अन्य सार्वजनिक अवसरों पर मुखरित होता है तथा ये स्वीकार भी करते हैं कि हिंदी, हिंद की केवल एक भाषा नहीं बल्कि पूरी संस्कृति है और अपनी संस्कृति से विहीन देश मौलिक विकास नहीं कर सकता है।परंतु हिंदी लिखने के अभ्यास में कमी की वजह से ये अधिकारी हिंदी में काम नहीं कर पाते हैं। अक्सर देखा गया है कि जो भी वरिष्ठ अधिकारी अपना कार्य हिंदी में करता है उसके अधीनस्थ सभी अधिकारी व कर्मचारी अपना अधिकाधिक कार्य हिंदी में और अधिक करने के लिए तत्पर रहते हैं। जहां तक कनिष्ठ अधिकारियों एवं कर्मचारियों की बात है उन सभी को हिंदी इतनी आती है कि उनके लिए हिंदी में काम करना कठिन नहीं बल्कि सहज है। वे अपने मनोभावों को हिंदी में व्यक्त करने में सहजता महसूस करते है और उनकी कार्य निष्पादन क्षमता भी बढ़ी हुई पाई गई है। अत: जब तक कार्यालय के शीर्ष अधिकारी हिंदी में कार्य करने के लिए अपने विभाग, संस्था, संस्थान, कार्यालय का स्वयं आगे बढ़कर नेतृत्व नहीं करेंगे तब तक संघ का कार्य हिंदी में करने की बात करना महज एक दिवास्वप्न होगा। अत: संघ का कार्य हिंदी में हो इसकी जिम्मेदारी सर्वप्रथम हमारे शीर्षस्थ अधिकारियों पर है। जब तक ये अधिकारी अपने कर्तव्य का पालन नहीं करेंगे तब तक अन्य से ऐसी अपेक्षा करना उचित नहीं होगा। प्रश्न यह है कि शीर्ष पर बैठे इन विज्ञ व जिम्मेदार अधिकारियों को उनकी राजभाषा संबंधी जिम्मेदारी का एहसास कौन और कैसे कराया जाए। उम्मीद की जाती है कि कभी न कभी तो इन्हें खुद ब खुद अपनी जिम्मेदारी का एहसास होगा और इनकी अंतरात्मा, इनका आत्मचिंतन इन्हें हिंदी को आत्मसात करने के लिए विवश कर देगी। पूरे विश्व में अपनी कार्यक्षमता का लोहा मनवाने के बाद भारतीय अफसरशाही को राजभाषा के कार्यान्वयन के लिए बस याद दिलाने की जरूरत है। 'का चुप साधि रहा बलवाना' एक बार जब इनको अपनी कार्यान्वयन क्षमता की याद आ जाएगी उसी दिन से हिंदी संघ की राजभाषा हो जाएगी और पूरा देश एक भाषा सूत्र में बंध जाएगा और हिंदी संघ की राजभाषा व्यवहार्य रूप में बन पाएगी।
विनोद राय
हिंदी अधिकारी
भारतीय कंटेनर निगम लिमिटेड
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें